Why are there 28 days in February and 29 days in leap years?
The history of the calendar is very complicated. It started in the Roman period. The Roman calendar originally had only 10 months and the first day of the year was March 1. (This is why “September” was considered the last month because of “7 (Sapt)”, “October” because of 8 (Asht), “November” because of 9 (Nav), and “December” because of 10 (Dash) ).
After December there was a void of about 60 days that had no name, and no one thought of converting it into months. The earliest calendars probably had 29 days per month, based on moon dates. Later these days were added till 30 and 31 days.
The months January and February were added to the calendar around 713 BC. In those days, February was the only month in which the number of days was even, i.e. 28 days. In all the remaining months the number of days was 29 or 31. In those days even numbers were considered inauspicious.
But it was necessary to give an even number to any one month, hence this month was kept the shortest so that the inauspicious month passes quickly. (Because the sum of 12 odd numbers is an even number, yet the number of days in the year remains odd).
The calendar continued in its same form till the time of Julius Caesar. Julius Caesar eliminated leap months because the Jewish calendar did not have leap months. But it was necessary to make one of the months a leap month so that the calendar remained useful in keeping with the solar year. Hence the thought of adding 1 day in February in leap years was thought of.
Now the calendar was almost ready in its modern form and for the next 1500 years, the days of other months continued to fluctuate by 1 day, but no one thought of making February a month with more days. This is why February still has 28 days.
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28 दिन फरवरी में और 29 दिन लीप वर्ष में क्यों होते हैं?
कैलेंडर का इतिहास बहुत जटिल है. इसकी शुरुआत रोमन काल में हुई थी. रोमन कैलेंडर में मूल रूप से केवल 10 महीने होते थे और वर्ष का पहला दिन 1 मार्च होता था। (यही कारण है कि “7 (सप्त) के कारण “सितंबर” को अंतिम महीना माना जाता था, 8 (अष्ट) के कारण “अक्टूबर” को अंतिम महीना माना जाता था। “नवंबर” 9 (नव) के कारण, और “दिसंबर” 10 (डैश) के कारण)।
दिसंबर के बाद लगभग 60 दिनों का शून्य हो गया जिसका कोई नाम नहीं था और किसी ने इसे महीनों में बदलने के बारे में नहीं सोचा था। शुरुआती कैलेंडर में संभवतः चंद्रमा की तारीखों के आधार पर प्रति माह 29 दिन होते थे। बाद में इन दिनों को 30 और 31 दिन तक जोड़ दिया गया।
जनवरी और फरवरी महीने 713 ईसा पूर्व के आसपास कैलेंडर में जोड़े गए थे। उन दिनों फरवरी ही एक ऐसा महीना था जिसमें दिनों की संख्या सम यानी 28 दिन होती थी। शेष सभी महीनों में दिनों की संख्या 29 या 31 थी। उन दिनों में सम संख्याएँ अशुभ मानी जाती थीं। लेकिन किसी भी एक महीने को सम संख्या देना जरूरी था इसलिए इस महीने को सबसे छोटा रखा गया ताकि अशुभ महीना जल्दी निकल जाए। (चूँकि 12 विषम संख्याओं का योग एक सम संख्या है, फिर भी वर्ष में दिनों की संख्या विषम रहती है)।
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जूलियस सीजर के समय तक कैलेंडर इसी रूप में चलता रहा। जूलियस सीज़र ने लीप महीनों को समाप्त कर दिया क्योंकि यहूदी कैलेंडर में लीप महीने नहीं थे। परंतु किसी एक माह को लीप माह बनाना आवश्यक था ताकि कैलेंडर सौर वर्ष के अनुरूप उपयोगी बना रहे। इसलिए लीप वर्ष में फरवरी में 1 दिन जोड़ने का विचार आया। अब कैलेंडर अपने आधुनिक स्वरूप में लगभग तैयार हो चुका था और अगले 1500 वर्षों तक अन्य महीनों के दिनों में 1 दिन का उतार-चढ़ाव होता रहा, लेकिन फरवरी को अधिक दिनों वाला महीना बनाने के बारे में किसी ने नहीं सोचा। यही कारण है कि फरवरी में अभी भी 28 दिन होते हैं।